
अवहेलना की प्रताड़ना से
झुलसे मन को समझा रही हूँ मैं
जीवन की भूल-भुलैया में
स्वयं को भटकने से बचा रही हूँ मैं
अपना अस्तित्व खो रही हूँ मैं
दूसरों की दृष्टि में व्याप्त
हीन-भाव को झुठला रही हूँ मैं
अपनों के प्रेम में घुली घृणा
की झलक को अपना रही हूँ मैं
अपना अस्तित्व खो रही हूँ मैं
रक्त में घुले तिरस्कार के विष को
शरीर में फैलने से रोक रही हूँ मैं
किंतु अपनी आत्मा को आत्म-ग्लानि
की अग्नि में जलने को झोंक रही हूँ मैं
अपना अस्तित्व खो रही हूँ मैं.....
No comments:
Post a Comment