Saturday, May 1, 2010

बिना सिर-पैर की कविता


थी राह देखती तेरी, लेकर मधुर आस मिलन की,
किंतु सहृदय होकर तुम सुधि ना ले सके मन की,
नित इतना निष्ठुर बनकर कब तक रह लोगे एकाकी,
निज उर की कोमल मधु से वंचित रख लोगे साकी,
है विजय तुम्हारी फिर भी,
ये मेरी हार नही......
जल-जल कर पतंगे का मरना,
क्या ये सच्चा प्यार नही....
क्या ये सच्चा प्यार नही...
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1 comment:

  1. really looks like reading to someone's creation who has got seasoned in this field

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