Sunday, May 2, 2010

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मासूम मोहब्बत का बस इतना फसाना है,
काग़ज़ की हवेली है,बारिश का ज़माना है...

क्या शर्त-ए-मोहब्बत है,
क्या शर्त-ए-ज़माना है,
आवाज़ भी ज़ख्मी है, गीत भी गाना है....

उस पार उतरने की उम्मीद बहुत कम है,
कश्ती भी पुरानी है,
तूफान भी आना है...

समझे कि ना समझे वो अंदाज़ मोहब्बत के,
एक शख्स को आँखों से एक शेर सुनाना है....

भोली सी अदा कोई फिर इश्क़ की ज़िद्द पर है,
फिर आग का दरिया है और डूब के जाना है........

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